नि:स्वार्थ भाव से की गई भक्ति ही प्रेमाभक्ति है – सत्गुरू माता सुदीक्षा जी

कटनी।  ईश्वर के प्रति समर्पण एवं प्रेम की भावना द्वारा ही प्रेमाभक्ति अर्थात् वास्तविक भक्ति संभव है। उक्त उद्गार सत्गुरू माता सुदीक्षा जी महाराज द्वारा कटनी सत्संग समागम के मध्य प्रेषित किये गये। सत्गुरू माता जी ने कहा कि इस मनुष्य योनि का उद्देश्य परमात्मा को जानना है मोक्ष की प्राप्ति करना है और इन्हें जाना जा सकता है। ईश्वर का बोध केवल ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के उपरांत ही संभव है।

माता जी ने कहा कि केवल मनुष्य का जन्म लेने से हम मानव नहीं कहलायेंगे। मानव बनने के लिए हमारे अंदर मानवीय गुणों का होना नितांत आवश्यक है। जब हमारे हृदय में सभी के प्रति दया, प्रेम, करूणा, समर्पण का भाव होगा तभी हम मनुष्य कहलायेंगे। निदंा, वैर, ईष्र्या जैसे नकारात्मक भावों का त्याग कर सकारात्मकता को धारण करेंगे तभी मानव कहलायेंगे। एक उदाहरण द्वारा माता जी ने समझाया कि जब हम रेलवे स्टेशन पर जाते है और हमें उस तक पहंुचने का यदि रास्ता ही नहीं पता होगा तो हम समय पर कैसे पहंुच पायेंगे। हम यदि किसी से पूछते हुए भी रेलवे स्टेशन तक पहंुचते है तो समय पर न पहंुचने के कारण ट्रेन निकल जाती है और वहां पर पहंुचने का फिर कोई लाभ नहीं रहता। ठीक इसी प्रकार से हमें जो यह मनुष्य तन मिला है बुद्धि मिली है तो इससे हम परमात्मा की जानकारी प्राप्त कर सकते है उसे जान सकते है। किन्तु यदि हम अपनी बुद्धि का उपयोग परमात्मा को जानने में उसे प्राप्त करने में नहीं लगाते तो हमारा जीवन व्यर्थ ही रहता है।

सत्गुरू माता जी ने ‘प्रेमाभक्ति’ के विषय में बताया कि निःस्वार्थ भाव से प्रभु के प्रति प्रकट किया गया प्रेम ही वास्तविक रूप में प्रेमाभक्ति होती है। ईश्वर के प्रति स्वयं को पूर्ण समर्पित करने के उपरांत ही भक्ति होती है। फिर भक्त सभी में इस निराकार का ही स्वरूप देखता है वह किसी के अवगुणों को नहीं अपितु गुणों को ही देखता है। फिर उसका नजरिया सदैव ही सकारात्मक दृष्टिकोण को ही अपनाता है। अतः ऐसा भक्ति भरा जीवन ही हम सभी ने अपना बनाना है तभी हमारा कल्याण हो सकता है। इसके लिए निरंतर सेवा, सुमिरण एवं सत्संग को सही रूप व उद्देश्य से करे एवं आध्यात्म से जुड़े।

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